जब भी ज़िक्र होता हैं तुम्हारा
मैं चला जाता हूँ एक आत्मावलोकन की अवस्था मे
हो जाती हैं अवस्था मन की ध्यान सी
एक एक पल जो बिताए साथ
खुलने लगते हैं नेत्रपतल पर चलचित्र से
खुद पर आश्चर्य होता हैं की इतने दिन बाद भी
तुम काबिज हो इस दिल पर और तुमने
इसमे कई सेंधमारों से अपनी रक्षा की हैं.
मैं समझ नही पता की
तुम्हारा अब तक मेरे दिल मे टिके रहने का औचित्य क्या है?
आख़िर तुम क्या सिद्ध करना चाहती हो?
तुम तो मेरी सबसे प्रिय सखा रही हो
क्या तुम्हे ये शोभा देता हैं की
तुम मेरी मनः चेतना पर यू सवार
किसी आवारा हिरनी इधर उधर फिरती रहो.
पर सच कहूँ.
तुम्हारा मेरे मनःस्थल पर यूँ फिरना.
बार बार मेरे अहम को चुनौती देता है
और उस चुनौती का मंथन
हर बार मुझसे ऐसा असाध्य कार्य करवा ले जाती हैं
की हर बार मैं आश्चर्यचकित हो जाता हूँ.
Thursday, June 3, 2010
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