Saturday, March 20, 2010

सही रास्ता

उफ़, मुझे इस धूप की चुभन बर्दाश्त नहीं.

मुझे एक काला चश्मा दे दो.
मैं अपने मन को मना लूँगा की धूप, हैं ही नहीं.

उफ़, मुझे ये समाज मे फैला अत्याचार बर्दाश्त नहीं.
मुझे दो घूट जाम के दे दो,
मैं अपने मन को मना लूँगा कि ये अत्याचार, हैं ही नहीं.

उफ़, कौन पड़े इस असली और नकली के चक्कर मे.
मुझे अभी सोने दो.
मैं अपने मन को मना लूँगा की मेरे स्वप्न ही असली हैं, 
बाकी कुछ नकली तो हैं ही नहीं.

उफ़, कौन पड़े इस पाप और पुण्य के चक्कर मे,
मुझे अभी लंबा जीवन जीना हैं.
मैं अपने मन को मना लूँगा की मेरे सभी कर्म पुण्य हैं, 
पाप तो मुझसे कभी हुआ है ही नहीं.

पर ये क्या?
उफ़, मेरा ये शरीर जल चुका हैं
इस समाज ने मुझे धोखा दिया हैं.
मैं जीवन मे कुछ कर ना पाया.
मुझे नरक मे धकेल दिया गया हैं.

हे परमात्मा, तुझपे धिक्कार है.
धिक्कार है, धिक्कार है, धिक्कार है.
आख़िर क्यूँ ,तुमने मुझे सही रास्ता कभी, दिखाया ही नहीं.

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