Monday, June 21, 2010

मुझे अब मुक्त कर दो.

तुम आज भी मुझमे पैदा करती हो,
जीने की तमन्ना ,
उड़ने की चाहत,
और दौड़ कर कस के तुम्हे बाँहों मे भर लेने की चाहत.

पर क्या करूँ,
तुमने ही तो मेरे इस जीवन मे विष का संचार किया.
तुमने ही तो मेरे पर कतरे.
तुमने ही तो मेरे और अपने बीच समंदर सा फासला पैदा कर लिया.

मैं थक गया हूँ,
तुम्हे देवी और चुड़ैल के अंतर्विरोधी स्वरूपों मे देखते हुए.
भावनाओ की नदी के दोनो ओर दौड़ते हुए.
अब तो एक ही विनती हैं तुमसे मेरी की

मुझे अब मुक्त कर दो.

Thursday, June 3, 2010

जब भी ज़िक्र होता हैं तुम्हारा

जब भी ज़िक्र होता हैं तुम्हारा
मैं चला जाता हूँ एक आत्मावलोकन की अवस्था मे
हो जाती हैं अवस्था मन की ध्यान सी
एक एक पल जो बिताए साथ
खुलने लगते हैं नेत्रपतल पर चलचित्र से

खुद पर आश्चर्य होता हैं की इतने दिन बाद भी
तुम काबिज हो इस दिल पर और तुमने
इसमे कई सेंधमारों से अपनी रक्षा की हैं.
मैं समझ नही पता की

तुम्हारा अब तक मेरे दिल मे टिके रहने का औचित्य क्या है?
आख़िर तुम क्या सिद्ध करना चाहती हो?
तुम तो मेरी सबसे प्रिय सखा रही हो
क्या तुम्हे ये शोभा देता हैं की
तुम मेरी मनः चेतना पर यू सवार
किसी आवारा हिरनी इधर उधर फिरती रहो.

पर सच कहूँ.
तुम्हारा मेरे मनःस्थल पर यूँ फिरना.
बार बार मेरे अहम को चुनौती देता है
और उस चुनौती का मंथन
हर बार मुझसे ऐसा असाध्य कार्य करवा ले जाती हैं

की हर बार मैं आश्चर्यचकित हो जाता हूँ.

मकानमालिक

मुझे एक नया घर तलाशना हैं.

एक समय,
जब तुमने मुझे अपने अपने घर मे पनाह दिया था.
मैने तुम्हारे घर को ही अपना घर समझ लिया था.
तुम्हारे बिस्तर को ही अपना बिस्तर और
तुम्हारे गुसलखाने को ही अपना गुसलखाना समझ लिया था.

मैने भी तो भरे थे उसके दीवारों पर रंग तुम्हारे साथ मिल कर
और लगाए थे उसके बगीचे मे गुलाब के फूल
ये सोच कर की हमारा ये घर हमेशा खिलखिलता रहेगा
इन गुलाबी फूलों की तरह.

पर एक दिन हर एक मकानमालिक की तरह तुमने,
मुझे अपने घर से निकल जाने का फरमान सुना ही दिया.
शायद कुछ और लोग, तुम्हारे अपने आने वाले थे और
अब तुम्हारे घर मे मेरे लिए लिए अब जगह ना थी.

मैं एकाएक गृहस्थ से सड़क पर था.
पर सच कहता हूँ,
सड़क पर सोते हुए भी, मेरे आलिंगन मे तुम ही थी.
इस उम्मीद के साथ की कल फिर हम वो घर साझा करेंगे.

Saturday, March 20, 2010

एक रात एक सॉफ़्टवैयर के साथ

कल रात ऑफीस मे पड़ा पड़ा एक काम निपटा रहा था,
अपने एक क्लाइंट के लिए एक सॉफ़्टवैयर बना रहा था.
जब सॉफ़्टवैयर बन कर पूरा हुआ, तो सोचा ज़रा चला कर देखूं.
महीने भर की अपनी कड़ी मेहनत को ज़रा आज़मा कर देखूं.
सॉफ़्टवैयर के सभी हिस्सों को जोड़ कर उसे तैयार किया.
फिर उसके आइकान पर क्लिक कर उसे चलने को होशियार किया.
जब सॉफ़्टवैयर चला तो ऐसी खुशी हुई,
जैसे मैने भी किसी बच्चे को जना हैं
मेरी इस खुशी के सामने तो मेरी हर खुशी फ़ना हैं.

फिर मैने उसे कुछ कॉंमांड दिया,
उसने उसे खुशी-खुशी स्वीकार किया.
उसने अपनी हर आप बीती खोलकर मेरे सामने रख दिया
बदले मे मैने उसके कुछ और बग्स भी फिक्स कर दिया

फिर तो मैं जो कहता गया वो करता गया
और हमारा याराना पूरी रात परवान चढ़ता गया.
मेरी हर बात पर वो मुझे थैंक यू कहता.
मैं भी उसकी हर थैंक यू को पूरे दिल से आक्सेप्ट करता.

फिर मैने वो किया जो मुझे नही करना चाहिए था.
अपनी ही कृति पर ऐसा निर्मम प्रहार नही करना चाहिए था.
पर मैं देखना चाहता था की,
क्या ये वाकई दुनिया के निर्मम प्रहार सह पाएगा.
बुरा समय आने पर ये कही पीठ तो नही दिखाएगा.

पहले तो उसने मुझे चेतावनी दी.
कहा आप ग़लत हर रहे हो.
मेरी प्राईवेसी मे दखल दे रहे हो.
मुझे भी तैश आ गया,
फिर तो मैने उस पर प्रहारों की झड़ी लगा दी.
दो मिनिट मे ही उसको उसकी औकात दिखा दी.

पहले तो उसे गुस्सा आया,
फिर वो दुखी हुआ ,
और फिर दो दिन के लिए
उसने मुझे अपनी जिंदगी से
बेदखल का दिया.

पता नही क्यूँ, मैं खुश भी था और दुखी भी.
एक सॉफ़्टवैयर का खुश क्या होना और दुखी क्या
उसका खुश होना है क्या
कुछ पंक्ति कोड का संपादित होना
और उसका दुखी होना
कुछ दूसरी पंक्ति कोड का संपादित होना
इसमे कुछ ख़ास है क्या

पर सच बताओ हम भी इस सॉफ़्टवैयर से अलग है क्या.
हम भी खुश होते है और दुखी भी.
हमारा खुश होना है क्या?
हमारे अंदर एक खास भावना का संपादित होना
हमारा दुखी होना है क्या?
हमारे अंदर एक दूसरी भावना का संपादित होना
इसमे कुछ ख़ास है क्या?

फिर हम क्यू खुश होने पर इतना खुश हो जाते हैं
और दुखी होने पर इतने दुखी .
शायद हम है तो सॉफ़्टवैयर ही ना जिसे ईश्वर ने है रचा.
और जिसकी नियती है की वो जीवन पर्यंत,
अपने अंदर भावनाओ को संपादित करते रहने को है बँधा.

सही रास्ता

उफ़, मुझे इस धूप की चुभन बर्दाश्त नहीं.

मुझे एक काला चश्मा दे दो.
मैं अपने मन को मना लूँगा की धूप, हैं ही नहीं.

उफ़, मुझे ये समाज मे फैला अत्याचार बर्दाश्त नहीं.
मुझे दो घूट जाम के दे दो,
मैं अपने मन को मना लूँगा कि ये अत्याचार, हैं ही नहीं.

उफ़, कौन पड़े इस असली और नकली के चक्कर मे.
मुझे अभी सोने दो.
मैं अपने मन को मना लूँगा की मेरे स्वप्न ही असली हैं, 
बाकी कुछ नकली तो हैं ही नहीं.

उफ़, कौन पड़े इस पाप और पुण्य के चक्कर मे,
मुझे अभी लंबा जीवन जीना हैं.
मैं अपने मन को मना लूँगा की मेरे सभी कर्म पुण्य हैं, 
पाप तो मुझसे कभी हुआ है ही नहीं.

पर ये क्या?
उफ़, मेरा ये शरीर जल चुका हैं
इस समाज ने मुझे धोखा दिया हैं.
मैं जीवन मे कुछ कर ना पाया.
मुझे नरक मे धकेल दिया गया हैं.

हे परमात्मा, तुझपे धिक्कार है.
धिक्कार है, धिक्कार है, धिक्कार है.
आख़िर क्यूँ ,तुमने मुझे सही रास्ता कभी, दिखाया ही नहीं.